सामान्य भाषा में हम जानते हैं कि कोशिका विभाजन एक प्रकार का केंद्र विभाजन (कैरिओं काइनेसिस) ही होता है केंद्र के विभाजित होने के बाद कोशिका द्रव्य विभाजित होता है इन दोनों को मिलाकर कोशिका विभाजन कहते हैं
कोशिका विभाजन का इतिहास
- नगेली 1846 प्रतिपादित किया की नई कोशिकाएं पूर्ववर्ती कोशिका से बनती है
- रुडोल्फ विरचौ 1859 उपरोक्त मत का समर्थन किया तथा “ओमनिस सैलूला ए सैलूला” का प्रतिपादन किया
- स्ट्रॉस बर्गर 1870 पादप कोशिकाओं में कोशिका विभाजन का वर्णन किया
- फ्लैमिंग 1882 प्राणी कोशिका में कोशिका विभाजन का वर्णन किया तथा माइटोसिस शब्द का प्रयोग किया
- होवार्ड तथा पैले 1953 कोशिका चक्र की विभिन्न अवस्थाओं की खोज की थी
- कोशिका विभाजन की उदाहरण शरीर का बढ़ना, वृक्ष की नई डाली आना, ट्यूमर की गांठ बन जाना, त्वचा का निर्मोचन
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कोशिका विभाजन के चरण
इनका विभाजन निम्न चार चरणों में संपन्न होता है
1. प्रोफेस (Prophase) – इसके अंदर मुख्य घटनाएं निम्न है केंद्रक झिल्ली टूट जाने से केंद्र का सारा मैटेरियल कोशिका द्रव्य में आ जाता है तारक काय ध्रुव की ओर चले जाते हैं अर्ध गुणसूत्र का निर्माण हो जाता है और तारक तंतु बनने शुरू हो जाते हैं
2. मेटाफेस (Metaphase) – अर्ध गुणसूत्र मध्य रेखा पर व्यवस्थित हो जाते हैं जैसे कोई परेड कर रहा हो ठीक उसी प्रकार दिखाई देते हैं
3. एनाफेज (Anaphase) – अब गुणसूत्र दोनों ध्रुवों की और गतिशील हो जाते हैं इनका मुंह ध्रुव की ओर होता है और सारे मुद्दे पर लिखा से दूर चले जाते हैं तथा ध्रुव के पास पहुंच जाते हैं
4. टेलोफेस (telophase)- यह अवस्था प्रोसेस से बिल्कुल उल्टी होती है अर्थात केंद्रक झिल्ली का निर्माण हो जाता है सभी अर्ध गुणसूत्र गुणसूत्र तंतुओं में बदल जाते हैं इस प्रकार एक कोशिका में दो केंद्रक बन जाते हैं
अब कोशिका द्रव्य के विभाजन की बारी आती है जंतुओं में तो कोशिका संकुचित होकर दो पुत्री कोशिकाओं में बदल जाती है परंतु पादप कोशिका में एक कोशिका पट्टी का निर्माण मध्य भाग में हो जाता है जो सैलूलोज की बनी होती है यह पट्टी कोशिका को दो भागों में विभाजित कर देती है
कोशिका चक्र की परिभाषा
जीवो के शरीर में विभाजित होते रहने वाली कायिक कोशिकाओं में वृद्धि और विभाजन का नियमित चक्र चलता है इस चक्र को कोशिका चक्र कहते हैं अर्थात कोशिका के पूरे जीवन काल को कोशिका चक्र कहते हैं,
- कोशिका विभाजन से बनी संतति कोशिकाएं कोशिका चक्र शुरू करती है संतति कोशिका विभाजित होने वाली जनक कोशिका से छोटी होती है
- नियमित रूप से विभाजित होने वाली कोशिकाओं की कोशिका चक्र की अवधि 10 से 30 घंटे के बीच होती है जैसे त्वचा तथा रुधिर की कोशिकाएं
कोशिका चक्र को दो अवस्थाओं में बांटा गया है
- अंतरा अवस्था या इंटरफेस तथा
- विभाजन अवस्था
1. इंटरफेस
अंतरावस्था दो कोशिका विभाजन के बीच की अवस्था है जिसमें कोशिका विभाजन के लिए तैयारी करती है इसी अवस्था में गुणसूत्र लंबे तथा महीन होकर क्रोमेटिंन जाल बनाते हैं इस अवस्था में केंद्रक और कोशिका द्रव्य दोनों में उपापचय की क्रियाएं चरम सीमा पर होती है एवं कोशिका उन सभी आवश्यक पदार्थों का संश्लेषण एवं संग्रह करती है जो कोशिका विभाजन के समय आवश्यक होते हैं
इसमें तीन अवस्थाएं होती है
1. G1 अवस्था या प्रारंभिक वृद्धि काल –
यह DNA संश्लेषण के बीच की अवधि है इस अवस्था में कोशिका विभाजन चक्र के पूर्ण समय का 30 से 50% स्तनधारीओं में समय लगता है इस अवस्था में RNA का संश्लेषण होता है इसके अलावा S अवस्था तथा G2 अवस्था होती है
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2. S अवस्था या डीएनए संश्लेषण अवस्था –
यह अवस्था कोशिका की कुल समय का 30 से 40% समय लगाती है अर्थात लगभग 8 घंटे इसमें DNA तथा हिस्टोन के संश्लेषण के फलस्वरूप DNA की पुनरावृति होती है इस समय DNA के दोनों रज्जू एक दूसरे के इतने समीप होते हैं कि दोनों रज्जु को पहचानना असंभव होता है इसी समय DNA की मात्रा दुगनी हो जाती है अतः इस अवस्था में क्रोमेटिन तंतुओ की 2 प्रतियां हो जाती हैं जिन्हें क्रोमेटिड्स/अर्ध गुणसूत्र कहते हैं) क्रोमेटिन और क्रोमेटिड्स में कितना छोटा सा अंतर है लेकिन यह अंतर कभी-कभी महंगा साबित होता है प्रत्येक गुणसूत्र के दोनों क्रोमेटिड्स सेंट्रोमेयर पर जुड़े होते हैं
3. G2 अवस्था अथवा द्वितीयक वर्धन काल –
यह अवस्था कोशिका की अवधि का 10 से 20%( स्तनधारीओं में लगभग 4 घंटे की) होती है इस अवस्था में विभाजन के लिए आवश्यक पदार्थों का संश्लेषण होता है तथा डी एन ए की मात्रा भी सामान्य कायिक कोशिका से दुगनी रहती है
विशेष बात – सभी कोशिकाओं में माइक्रोटिक प्रेरक जींस का एक समूह होता है जिसे कोशिका चक्र जीन कहते हैं जब तक यह जीन सक्रिय नहीं होते तब तक कोशिका G1 अवस्था में ही बनी रहती है
2. कोशिका विभाजन की अवस्था
जीवो में दो प्रकार का कोशिका विभाजन : समसूत्री तथा अर्धसूत्री विभाजन पाया जाता है
समसूत्री विभाजन
ऐसा विभाजन जिसमें गुणसूत्रों की संख्या व उस पर जीनो का विन्यास समान हो समसूत्री विभाजन कहलाता है यह कायिक कोशिकाओं में होता है यह विभाजन जीवन चक्र में अनेक बार होता है, पूर्ण कोशिका विभाजन के अंत में केवल दो सन्तति (पुत्री) कोशिकाएँ बनती है। इसमें सम्पूर्ण विभाजन एक ही चरण में पूरा हो जाता है।, इसमें गुणसूत्रों में विनिमय तथा क्याजमेआ का निर्माण नहीं होता है।
यह अवस्था अधिक समय तक नहीं चलती है। सन्तति कोशिकाएँ आनुवंशिकी लक्षणों में एक जैसी तथा मातृ कोशिकाओं की तरह ही होती हैं। इसमें सन्तति कोशिकाओं में गुणसूत्रों की संख्या मातृ कोशिका के बराबर अर्थात द्विगुणित होती है। इसके फलस्वरूप शरीर की वृद्धि, टूटे-फूटे ऊतकों की मरम्मत एवं विकास होता है। समसूत्री विभाजन से संतति कोशिकाओं में जीनो का नियमित वितरण होता है
समसूत्री विभाजन का महत्व
इसके कारण ही कहीं कट लग जाता है तो कोशिकाएं विभाजित होकर उस घाव को भर देती हैं इसी कोशिका विभाजन के कारण ही हमारे शरीर में नई कोशिकाएं बनती हैं और जीवो का एक खास गुण वृद्धि होता है अर्थात प्रत्येक जीव बढ़ता है चाहे वह पौधा हो या जंतु, इसी समसूत्री विभाजन के कारण वृक्ष में नई डाली आ जाती है समसूत्री विभाजन के कारण ही हमारे शरीर में लाखों रुधिर कणिकाएं प्रतिदिन बनती भी है और प्रतिदिन मर भी जाती हैं
यदि समसूत्री विभाजन नहीं होता तो हमारे रुधिर कणिकाएं एक बार मृत होने के बाद सारा रुधिर ही नष्ट हो जाता, सरल जीव में इसी समसूत्री विभाजन के कारण नए अंग आ जाते हैं जिसे पुनरुदभवन कहते हैं जैसे छिपकली की नई पूछ का आ जाना, छोटे बच्चों में कोशिका विभाजन की दर तेज होती है इसलिए उनके घाव जल्दी भर जाते हैं जबकि जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जाती है कोशिकाओं के विभाजन की दर कम होती जाती है
अर्द्धसूत्री विभाजन
इसके द्वारा युग्मक बनते हैं तथा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में जाते हैं अतः सभी कोशिकाएं पुरानी कोशिकाओं के विभाजन से उत्पन्न होती हैं यह युग्मक के निर्माण के लिए जनन कोशिकाओं में ही होता है। जीवन चक्र में यह केवल एक ही बार होता है पूर्ण कोशिका विभाजन के अंत में चार पुत्री कोशिकाएँ बनती है। इसमें विभाजन दो चरणो – मिओसिस I व मिओसिस II में पूरा होता है। प्रोफेज प्रथम एक लम्बी तथा जटिल क्रिया है, जिसमें समजात गुणसूत्रों के मध्य युग्मानुबंधन होता है,
क्याजमेटा बनते है तथा क्रॉसिंग ओवर आदि क्रियाए होती हैं। सन्तति कोशिकाओं में आपस में भी तथा मातृ कोशिका से भी आनुवंशिक लक्षणों में कुछ भिन्नता होती है। इसमें सन्तति कोशिकाओं में गुणसूत्रों की संख्या मातृ कोशिका की संख्या की आधी अर्थात् अर्द्धगुणित होती है। इसके फलस्वरूप युग्मकों का निर्माण ( लैंगिक जनन) होता है। कायिक कोशिका समसूत्री विधि से तथा जनन कोशिका अर्धसूत्री विधि से उत्पन्न होती है, रुडोल्फ विरचौ ने सन 1855 यह मत प्रतिपादित किया कि नई कोशिकाएं पूर्ववर्ती कोशिकाओं से बनती है
कोशिका विभाजन के नुकसान
कोशिका विभाजन जीवो के लिए एक वरदान तो है परंतु इसके अपने ही नुकसान हैं अब सवाल यह आता है कि इतनी महत्वपूर्ण चीज नुकसानदायक कैसे हो सकती है
जवाब बड़ा सिंपल है सभी कोशिकाएं जीवन भर तो विभाजित हो नहीं सकती इसलिए कोशिकाओं में कुछ ऐसे एंजाइम या कारक होते हैं सक्रिय जीन होते हैं जो कोशिका विभाजन को नियंत्रित करते रहते हैं अभी वैज्ञानिकों को इस प्रकार के जीन का पूर्ण ज्ञान नहीं है कभी-कभी यह जीन अधिक सक्रिय हो जाते हैं जिसके कारण कोशिका विभाजन निरंतर चलता रहता है इसी अवस्था को हम कैंसर कहते हैं, क्योंकि यदि कोशिका लगातार विभाजित होती रहे तो उस स्थान पर गांठ बन जाएगी और शरीर की खुद की कोशिका ही शरीर को मारने का कार्य करेगी
वैसे तो कैंसर दो प्रकार के होते हैं
- लोकल कैंसर – इसका इलाज गामा किरणों से तथा कुछ रासायनिक दवाओं से या ऑपरेशन द्वारा कर दिया जाता है
- मालिगनेंट कैंसर अथवा दुर्दम कैंसर – इसका कोई भी इलाज नहीं होता, शरीर में कोई एक कोशिका कैंसर जनित हो जाती है फिर यह कोशिका पूरे शरीर में फैल फैल कर घूम घूम कर कैंसर पैदा करती है इस प्रकार के कैंसर का कोई भी इलाज कभी भी संभव नहीं हो सकता है, इस प्रकार के कैंसर का एक और नाम दिया जा सकता है इसे स्वयं प्रतिरक्षा रोग अर्थात Autoimmune Disease कहते हैं
ब्लड कैंसर (Leukemia) – यह एक प्रकार का दुर्दम कैंसर है मुंह में होने वाला ल्यूकोपलाकिया इसी प्रकार का एक भयावह बीमारी है
Autoimmune – बीमारियां या तो रसायनों द्वारा उत्पन्न होती हैं अथवा शरीर की स्वयं की कमी द्वारा यह किसी विषाणु / वायरस या जीवाणु द्वारा उत्पन्न नहीं होती है
कोशिका से संबंधित खोज
- डब्ल्यू फ्लेमिंग – 1877 में समसूत्री कोशिका विभाजन की खोज की, 1879 में गुणसूत्रों का विभाजन एवं क्रोमेटिन शब्द का प्रतिपादन ।
- बेन्डर्न एवं बोवेरी – 1887 में जाति में गुणसूत्रों की संख्या निश्चित होती है।
- डब्ल्यू एस सटन – 1902 में न्यूनकारी विभाजन का महत्व (अर्द्धसूत्री) की खोज की
- जे.बी. फार्मर – 1905 में अर्द्धसूत्री विभाजन नाम दिया
- नॉल एवं रस्का – 1932 में इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी की खोज की
- टी एच मॉर्गन – 1950 में आनुवंशिकता में गुणसूत्रों की भूमिका की खोज की
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