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शिशुनाग वंश & शुंग वंश ( Shishunaag Dynasty & Shung Dynasty 412 -344 ई पू)
शिशुनाग:-(412-394 ई.पू.)
इस वंश का संस्थापक शिशुनाग को माना जाता है इसी के नाम पर इस वंश का नाम ‘ शिशुनाग वंश’ पड़ा। शिशुनाग वैशाली के राजा और वहां की नगरवधू की संतान था जिसका परित्याग कर दिया गया था। नाग द्वारा रक्षित होने के कारण इसे शिशुनाग नाम मिला। शिशुनाग नागदशक का सेनापति था
प्रमुख शासक शिशुनाग वंश ( 412 से 394 ई पू ) इसने अवन्ति तथा वत्स राज्य पर अधिकार कर उसे मगध साम्राज्य में मिला लिया । इसने वैशाली को राजधानी बनाया । हर्यक वंश के अंतिम शासक नागदशक के शासनकाल में शिशुनाग एक आमात्य था एवं बनारस का गवर्नर था।
मगध की राजधानी पुनः गिरिव्रज(राजगृह) बनाई गई। शिशुनाग ने वैशाली को मगध की दूसरी राजधानी बनाया। शिशुनाग ने अवंति राज्यबको विभाजित कर मगध में मिलाया।इसके अलावा उसने वत्स एवं कौशल(कोसल) राज्यों पर भी विजय हासिल की। इसके बाद मगध राज्य में बंगाल की सीमा से लेकर मालवा तक का भू-भाग शामिल हो गया।अब उत्तरी भारत में मगध का कोई शक्तिशाली या प्रबल शत्रु नहीं रहा
महावंश के अनुसार , शिशुनाग की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र कालाशोक गद्दी पर बैठा ।
डॉक्टर सुधाकर चट्टोपाध्याय ने अपनी पुस्तक बिंबिसार टू अशोक में लिखा है कि सेनापति रहते हुए ही शिशुनाग में अवंती पर विजय प्राप्त की
कालाशोक(काक वर्ण):-(394-366 ई.पू.)
शिशुनाग के बाद उसका पुत्र कालाशोक मगध का शासक बना। इसका नाम ‘पुराण ‘ तथा ‘दिव्यादान’ में काकवर्ण मिलता है।
इसने वैशाली के इस्थान पर पुनः पाटलिपुत्र को अपनी राजधानी बनाया इसने 28 वर्षों तक शासन किया । इसी के समय द्वितीय बौद्ध संगीति का आयोजन वैशाली में हुआ । इसी के समय बौद्ध संघ दो भागों (स्थावर तथा महासांघिक) में बंट गया बाणभट्ट रचित ‘ हर्षचरित’ के अनुसार काकवर्ण को राजधानी पाटलिपुत्र में घूमते समय महापद्मनंद नामक व्यक्ति ने चाकू मारकर हत्या कर दी ।
महाबोधिवन्स के अनुसार कालाशोक के 10 पुत्र थे , जिन्होंने कलाशोक की मृत्यु (366 ई पू ) के बाद मगध पर 22 वर्सो तक (लगभग 344ई पू) शासन किया। 344 ई.पू. में शिशुनाग वंश के अंतिम शासक-महानंदिन(नंदिवर्धन) की हत्या कर महापद्मानंद ने मगध पर नन्द वंश के शासन का सूत्रपात किया।
- मगध की राजधानी वैशाली किस शासक ने बनाई– शिशुनाग
- शिशुनाग वंश का अंतिम शासक कौन था- महानंदिन (नंदिवर्धन)
- शिशुनाग अमात्य था।- हर्यक वंश
शुंग वंश
मौर्य साम्राज्य के पतन के साथ ही भारतीय इतिहास की राजनीतिक एकता कुछ समय के लिए विखंडित हो गई। अब ऐसा कोई राजवंश नहीं था जो हिंदुकुश से लेकर कर्नाटक एवं बंगाल तक आधिपत्य स्थापित कर सके। दक्षिण में स्थानीय शासक स्वतंत्र हो उठे। मगध का स्थान साकल, प्रतिष्ठान, विदिशा आदि कई नगरों ने ले लिया।
अन्तिम मौर्य शासक बृहद्रथ की हत्या कर 185 ई.पू.में पुष्यमित्र शुंग ने जिस नवीन राजवंश की नींव डाली, वह शुंग वंश के नाम से जाना जाता है। पुष्यमित्र शुंग के पूर्वज मूलतः उज्जैन प्रदेश के भारद्वाज ब्राह्मण थे और वहाँ वे मोर्यों की सेवा में संलग्न थे । मोर्य वंश के अन्तिम शासक बृहद्रथ ने पुष्यमित्र शुंग को अपना सेनापति नियुक्त किया था । बृहद्रथ जब एक सैन्य प्रदर्शन का निरीक्षण कर रहा था, पुष्यमित्र ने सेना के समक्ष खुले मैदान में उसकी हत्या कर दी क्योंकि वह राज्य शपथ निभाने में असमर्थ था ।
तदुपरांत पुष्यमित्र शुंग स्वयं सिंहासन पर बैठ गया और मगघ में एक नवीन वंश शुंग वंश की स्थापना की । मोर्य सत्ता हथियाने के पश्चात पुष्यमित्र ने मोर्य साम्राज्य के बिखराव को रोकने का प्रयास किया । उसने अवन्ति राष्ट्र (प्रान्त )में स्थित विदिशा नगर (बेसनगर मध्य प्रदेश )में साम्राज्य की दूसरी राजधानी स्थापित की, ताकि दूरस्थ प्रदेशों पर सुगमतापूर्वक नियंत्रण रखा जा सके ।
उसने अपने पुत्र अग्निमित्र को विदिशा का उपराजा नियुक्त किया । स्वयं वह पाटलिपुत्र से शासन करता था । 151 ई.पू. तक शासन किया राज्य में दो बार अश्वमेघ यज्ञ किया यज्ञ का पुरोहित सुप्रसिद्ध संस्कृत वैयाकरण पतंजलि थे
मौर्य सम्राट अशोक द्वारा बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार के फलस्वरूप ह्रास को प्राप्त करते हुए हिन्दू धर्म को उसने पुनर्जीवित किया | बौद्ध रचनाये पुष्यमित्र को बौद्धों का हत्यारा तथा बौद्ध मठो और विहारों को नष्ट करने वाला बताती है | कहा जाता है कि पुष्यमित्र शुंग ने अशोक द्वारा निर्मित 84000 स्तुपो को नष्ट कर दिया था |
हर्ष चरित्र पुष्यमित्र शुंग को अनार्य तथा निम्न उत्पति का बताया है |अग्निमित्र (149-141 ई. पू.) शुंग वंश का दूसरा सम्राट था। वह शुंग वंश के संस्थापक सेनापति पुष्यमित्र शुंग का पुत्र था। पुष्यमित्र के पश्चात् 149 ई. पू. में अग्निमित्र शुंग राजसिंहासन पर बैठा। पुष्यमित्र के राजत्वकाल में ही वह विदिशा का ‘गोप्ता’ बनाया गया था और वहाँ के शासन का सारा कार्य यहीं से देखता था।
आधुनिक समय में विदिशा को भिलसा कहा जाता है। ऐतिहासिक तथ्य अग्निमित्र के विषय में जो कुछ ऐतिहासिक तथ्य सामने आये हैं, उनका आधार पुराण तथा कालीदास की सुप्रसिद्ध रचना ‘मालविकाग्निमित्र’ और उत्तरी पंचाल (रुहेलखंड) तथा उत्तर कौशल आदि से प्राप्त मुद्राएँ हैं।
‘मालविकाग्निमित्र’ से पता चलता है कि, विदर्भ की राजकुमारी ‘मालविका’ से अग्निमित्र ने विवाह किया था। यह उसकी तीसरी पत्नी थी। उसकी पहली दो पत्नियाँ ‘धारिणी’ और ‘इरावती’ थीं। इस नाटक से यवन शासकों के साथ एक युद्ध का भी पता चलता है, जिसका नायकत्व अग्निमित्र के पुत्र वसुमित्र ने किया था।
राज्यकाल पुराणों में अग्निमित्र का राज्यकाल आठ वर्ष दिया हुआ है। यह सम्राट साहित्यप्रेमी एवं कलाविलासी था। कुछ विद्वानों ने कालिदास को अग्निमित्र का समकालीन माना है, यद्यपि यह मत स्वीकार्य नहीं है।
अग्निमित्र ने विदिशा को अपनी राजधानी बनाया था और इसमें सन्देह नहीं कि उसने अपने समय में अधिक से अधिक ललित कलाओं को प्रश्रय दिया। जिन मुद्राओं में अग्निमित्र का उल्लेख हुआ है, वे प्रारम्भ में केवल उत्तरी पंचाल में पाई गई थीं। जिससे रैप्सन और कनिंघम आदि विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला था कि, वे मुद्राएँ शुंग कालीन किसी सामन्त नरेश की होंगी, परन्तु उत्तर कौशल में भी काफ़ी मात्रा में इन मुद्राओं की प्राप्ति ने यह सिद्ध कर दिया है कि, ये मुद्राएँ वस्तुत: अग्निमित्र की ही हैं।
शुंग काल में विदिशा का राजनैतिक एवं सांस्कृतिक महत्व सर्वाधिक बताया गया है | शुंग वंश के नवे शासक भागभ्रद (भागवत) के शासनकाल के 14वे वर्ष तक्षशिला के यवन शासक “एन्टीयलाकीट्स” का राजदूत हेलियोडोरस विदिशा में वासुदेव के सम्मान में गरुण स्तम्भ स्थापित किया |
शुंग काल में संस्कृत भाषा का पुनुरुत्थान हुआ | इसके उत्थान में महर्षि पतंजलि का विशेष योगदान था | मनुस्मृति का वर्तमान स्वरूप की रचना इसी युग में हुयी | हेलियोड़ोरस का गरुण स्तम्भ हिन्दू धर्म से संबधित प्रथम स्मारक है | इस काल में भागवत धर्म का उदय हुआ तथा वासुदेव विष्णु की उपासना हुयी |
मौर्यकाल में स्तूप कच्ची ईंटो और मिटटी की सहायता से बनते थे परन्तु शुंग काल में उनके निर्माण में पाषाण का प्रयोग किया गया है | कनिंघम महोदय ने 1873 में भरहर स्तूप का पता लगाया | उसकी वेष्टनी और तोरणद्वार अधिकांशत: शुंगकालीन थे |
शुंगकालीन कला के उदाहरण विदिशा का गरुणध्वज , भाजा का चैत्य एवं विहार ,अजन्ता का नवा चैत्य मन्दिर , नासिक तथा कार्ले के चैत्य तथा मथुरा की अनेक यक्ष-यक्षणीयो की मुर्तिया है | शुंग वंश के अंतिम सम्राट देवभूति की हत्या करके उसके सचिन वासुदेव ने 75 ईस्वी पूर्व में कण्व वंश की नींव रखी |
पुष्यमित्र शुंग के बाद शुंग वंश कई प्रमुख राजा हुए
- ?अग्निमित्र
- ?ज्येष्ठमित्र
- ?भद्रक
- ?भागवत
- ?देवभूति
देवभूति को उसके आमात्य वासुदेव ने लगभग 73 ई.पू.में सिहासन से उतार दिया।
शुंग वंश के इतिहास के बारे में जानकारी साहित्यिक एवं पुरातात्विक दोनों साक्ष्यों से प्राप्त होती है, जिनका विवरण निम्नलिखित है-
? साहित्यिक स्रोत :-
- पुराण (वायु और मत्स्य पुराण) – इससे पता चलता है कि शुगवंश का संस्थापक पुष्यमित्र शुंग था।
- हर्षचरित – इसकी रचना बाणभट्ट ने की थी। इसमें अंतिम मौर्य शासक बृहद्रथ की चर्चा है।
- पतंजलि का महाभाष्य – पतंजलि पुष्यमित्र शुंग के पुरोहित थे। इस ग्रंथ में यवनों के आक्रमण की चर्चा है।
- गार्गी संहिता – इसमें भी यवन आक्रमण का उल्लेख मिलता है।
- मालविकाग्निमित्र – यह कालिदास का नाटक है जिससे शुंगकालीन राजनीतिक गतिविधियों का ज्ञान प्राप्त होता है।
- दिव्यावदान– इसमें पुष्यमित्र शुंग को अशोक के 84,000 स्तूपों को तोड़ने वाला बताया गया है।
? पुरातात्विक स्रोत
- अयोध्या अभिलेख– इस अभिलेख को पुष्यमित्र शुंग के उत्तराधिकारी धनदेव ने लिखवाया था। इसमें पुष्यमित्र शुंग द्वारा कराये गये दो अश्वमेध यज्ञ की चर्चा है।
- बेसनगर का अभिलेख – यह यवन राजदूत हेलियोडोरस का है जो गरुड़-स्तंभ के ऊपर खुदा हुआ है। इससे भागवत धर्म की लोकप्रियता सूचित होती है।
- भरहुत का लेख – इससे भी शुंगकाल के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।
- उपर्युक्त साक्ष्यों के अतिरिक्त साँची, बेसनगर, बोधगया आदि स्थानों से प्राप्त स्तूप एवं स्मारक शुंगकालीन कला एवं स्थापत्य की विशिष्टता का ज्ञान कराते हैं।
- शुंगकाल की कुछ मुद्रायें-कौशाम्बी, अहिच्छत्र, अयोध्या तथा मथुरा से प्राप्त हुई हैं जिनसे तत्कालीन ऐतिहासिक जानकारी प्राप्त होती है।
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प्रियंका झाँसी, अनीश खाँ, कमलनयन पारीक अजमेर, रमेश डामोर सिरोही, महेन्द्र चौहान, Dharma ram, P K Nagauri